Monday, October 07, 2013

पर सब चंदू कहते थे उसे

नन्हे हाथों में कलम न थी
और न किताब थी मिली उसे
कुछ सिक्कों की लालच ने
उसका बचपन बर्बाद किया
कभी सड़कों पे फैलाए हाथ
कालिख में लिपटे एक कल का साथ
कहीं दोपहर की धूप  में वो
कुछ जूतों को चमकाता था
फिर रात की काली चादर तले
किसी सेठ को चाय पिलाता था
नाम पता कुछ खबर नहीं
पर सब चंदू कहते थे उसे
पर सब चंदू कहते थे उसे 

जब उमर थे स्वर व्यंजन के
तो हुआ सामना गालियों से
जब जाते थे स्कूल  सभी
देखे उन्हें घर की जालियों से
सरकार से भी उम्मीद क्या करता
थे फ़िज़ूल के उनके वादे
अक्षरों से न तो हुयी दोस्ती
पर उसके थे ऊंचे इरादे
उसके सपनों की भनक नहीं
पर सब चंदू कहते थे उसे
पर सब चंदू कहते थे उसे

करता था काम किसी सेठ के घर पे
दो वक़्त का खाना मिलता था
कुछ फटे पुराने कपड़ों में
उसका हर हफ़्ता कटता था
इक बार जो चोरी हुयी थी घर में
उस सेठ ने उसकी रपट लिखाई
फिर बंद किया उसे थाने में
न फिर हुयी कभी उसकी रिहाई

ठप हो गया बचपन उसका
सड़ गयी जवानी जेल में ही
बनके गुनाहगार वो निकला
अपने जीवन के खेल में ही
अगर वो मुजरिम न बनता
तो क्या बनता वो पता नहीं
पर सब चंदू कहते थे उसे
पर सब चंदू कहते थे उसे

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