I dedicate this poem to a person, who came to know that soon he is going to die as he is at the last stage of cancer. He is in dilemma as to how should he treat his little bit left time of life.
भ्रम था कि मैं हूँ जी रहा
ये ज़िन्दगी अपने लिए।
पर ज़िन्दगी मुझे जी रही थी
अपना मकसद पाने के लिए।
जो भ्रम है टूटा,
फ़िर मैं समझा,
कि मैं तो ज़रिया मात्र था,
मुस्कुराहटें लाने के लिए।
जो हो गया मकसद ये पूरा,
मुझको है बुलाती मौत अब
किसी और के जीने के लिए।
अब जो आंसू छलके तो,
इन आंसुओं में मैं दिखूं।
न भुला सके ये दौर मुझे,
कुछ ऐसे अलविदा कहूँ।
कुछ ऐसे अलविदा कहूँ।
कुछ रोज़ पहले हुआ ग़ुमान
कि चंद लम्हे हैं बचे।
इनको मैं कैसे जियूं,
ये बवाल अब फ़िर मचे।
क्या मैं जियूं ख़ुद के लिए,
या फ़िर जियूं उनके लिए,
जिनकी सारी उम्मीदों ने
हर कदम पे मेरा साथ दिए।
जाना था दुनियां को देकर,
अपनी वो सारी दौलतें,
जिन्हें न कभी लुटा सका,
जो थी थोड़ी ही मोहलतें।
धूल जमे मेरी कब्र पे,
पर यादों पे जमने न दूं।
जीना चाहे मुझे ज़िन्दगी,
कुछ ऐसे अलविदा कहूँ।
कुछ ऐसे अलविदा कहूँ।
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