तन्हा सूनी गलियों में कभी
जब भी उसकी आहट सुनी,
झपटे उसपे कुछ भेड़िये
फ़िर भी न किसी ने चीख सुनी।
थी गुहार उसकी सबसे
कि कोई तो हाथ बढ़ा सके।
पर सब अपने मतलब में डूबे
अपनी एक अलग ही राह चुनी।
जो ये हालात हैं शहरों में
फ़िर कोई क्यों ये न कहे
इससे बेहतर तो बीहड़ है।
रखते हैं मूरत देवी की
घर-घर में पूजा करते हैं।
पर बाहर समाज में ही
उसको ही सताया करते हैं।
जब कभी मोहल्ले से गुज़रे,
सब ऐसे घूरते हैं उसको,
जैसे उनके घरवालों ने
दी खुली छूट है इन सब की।
फ़िर क्यों हैं ढोंग वो करते कि
नारी ही उनकी देवी है !
और उन्ही से उनकी भक्ति है।
रखें जो फ़रेबी हर चेहरा
और ढोंग रचें वो भक्ति का,
फ़िर कोई क्यों ये न कहे
हम जैसा ढोंगी और नहीं।
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