Thursday, February 13, 2014

क्या पता कि...

एक दिन ऐसे ही इत्तेफ़ाक़  से 
एक मोड़ पे एक राही से मिला 
लगता था जो हारा हुआ 
जिसे ज़िन्दग़ी से था ग़िला। 
वो पहुँच गया उस मोड़ पे 
जहां हर उम्मीदें ग़ुम हुयी। 
ग़म के कई थपेड़ों से 
उसकी आँखें भी नम हुयी। 
उसने माना कुछ रहा नहीं,
अब अलविदा कहने के सिवा।
अलविदा उस ज़िन्दगी  को 
जिसकी क़ीमत वो न समझा। 

उसको समझाया मैंने कि 
हर दिन एक जैसा तो नहीं। 
क्या पता कि कल उसे वो मिले 
जिसका था वो हक़दार रहा। 

मैंने उसको बतलाया कि 
फ़िर मिलेंगे मौक़े और भी। 
बनके विजेता वो उभरे,
आएगा ऐसा दौर भी। 
जो छोड़ दी जीने कि डगर,
तो ये मौक़ा भी छूटेगा। 
मानके तुझको ही कायर 
ये जहां भी तुझसे रूठेगा। 
रह जायेगी हावी वो वजह 
जिसने तुझको मजबूर किया। 
हार के जिससे अब तूने,
ख़ुद को जीने से दूर किया। 

क्या हुआ जो न कोई साथ दे,
तू ख़ुद को ही साथी कहे। 
न सोच तू अगले जनम की,
क्या पता कि कैसा जनम रहे !

उसमें मैंने ख़ुद को देखा 
और फ़िर मुझको एहसास हुआ 
कि मेरे जीवन से भी ज्य़ादा 
ये ग़म औरों का ख़ास हुआ। 
ये बात उसे समझाया मैंने 
और उसको एक राह दिखायी 
न वो पीछे मुड़ देखे,
जीने की ऐसी चाह सिखायी। 
जो खुशियाँ उसको हैं मिली,
और जो रिश्ते उससे हैं जुड़े, 
उन सब कि ख़ातिर है जीना 
संग जिनके उसकी हर राह मुड़े। 

क्यों छोड़ के सारी खुशियों को
और छोड़ के सारे रिश्तों को 
तूने ऐसी है डगर चुनी,
जहाँ पे इनकी खबर नहीं। 

क्या पता कि जो भी है मिला 
जिनको पाकर तू खुश रहा,
न हों नसीब अगले जनम। 
न हों नसीब अगले जनम। 

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