Friday, December 20, 2013

फ़िर भी...

थे ग़म के पहरे फ़ैले हुए  
जिनसे न रूबरू पहले हुए। 
जो थी चाहत मुस्कानों की तो  
खुशियों के अरमां मैले हुए। 
फिर भी न ही अफ़सोस किया। 
और आंसुओं को सम्भाला मैंने।  
क्योंकि थी मुश्किलें और खड़ी। 
क्योंकि थी मुश्किलें और खड़ी। 

जो थे उमीदों के बादल
उनसे न कोई बात बनी। 
आगे बढ़ने की ज़िद से फ़िर   
थी औरों से जंग ठनी।  
फ़िर भी हम सम्भाले हिम्मत को  
अक्सर आगे बढ़ते ही रहे। 
क्योंकि मेरा रस्ता देखे
थी राहें कुछ और खड़ी। 
थी राहें कुछ और खड़ी। 

था आसरा जिनसे राहत का 
विश्वास का उन्होंने ग़बन किया। 
उनको लगता कि मेरी खुशियों को 
उन्होंने है एक कफ़न दिया। 
वो थे कल ग़लत और आज भी हैं। 
फ़िर भी उनकी इस नादानी को,
हम नज़रअंदाज़ हैं करते
क्योंकि मेरे सपनों ने फ़िर 
कुछ और भी खुशियां हैं बुनी। 
कुछ और भी खुशियां हैं बुनी। 

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