है कुछ लम्हों की ज़िन्दगी
फिर भी बुनें हम ख्वाब क्यों
कितनी है दौलत अब बची
ढूढें हम इसका जवाब क्यों
मेरे बुने इन ख़्वाबों से
जो कल मुझे मिल भी गया
मिल कर कभी जो खो सके
चाहूँ मैं ऐसा सवाब क्यों
ये ज़िन्दगी की दौलतें
कुछ रोज़ की हैं अब बची
कुछ रोज़ की हैं अब बची
था नासमझ मैं भी तो इतना
कि न हुआ एहसास ये
थोड़े बचे इस वक़्त में
कहीं खो न दूँ जो ख़ास है
जो पल जिए खोने के डर से
वो तो कब के गुज़र गए
पर खोने का डर जो मिला
अब तक वो मेरे पास है
जो साँसों की हैं मोहलतें
कुछ रोज़ तक ही हैं मिली
कुछ रोज़ तक ही हैं मिली
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