Sunday, October 14, 2012

फिर भी उस राह पे चलता हूँ

शायद मैं कहीं भटक रहा था
शायद कहीं और निकल चला था
मैं मीलों आगे पहुँच गया
रस्ता तो मेरा वहीँ खड़ा था 
ठहरा न लम्हा हाथों में 
न वक़्त था कि मैं मुड़ सकूँ 
वापस ढूढुं उस रस्ते को 
जिस रस्ते से फिर जुड़ सकूँ 

फिर भूल के मैं उस मंज़िल को
मैं नयी राह अब चुनता हूँ 
एक नयी राह अब चलता हूँ  

ये सोच के आगे बढ़ा था मैं 
कि न होगी अब हार मेरी
पर आगे थी जो मुश्किलें
उनसे ही थी यलगार  मेरी
उम्मीद जो मन में बाकी थी 
उसने अपनी एक राह चुनी 
मैंने लाख मनाया पर 
फिर भी न उसने मेरी सुनी 
न है हिसाब क्या खोया मैं 
फिर भी उस राह पे चलता हूँ 
फिर भी उस राह पे चलता हूँ 

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