Tuesday, March 27, 2012

तब मैंने हथियार चुना

आवाज़ उठी जो सही के लिए 
हुकूमतों ने दफ़न किया 
उठ गया भरोसा वादों से  
जिनका उन सब ने गबन किया 

कुछ सन्नाटों में चीखें थी 
जिनको किसी ने भी न सुना 
फरियादें जब हुयी अनसुनी
तब मैंने हथियार चुना

एक सुनहरे कल का ख्वाब जो देखा
इस दिल में कई उमीदें थी
एक नयी सोच से सजी हुयी 
मेरी आँखों की नीदें थी 

बिखर गया ख्वाबों का जहां  
जिसको सदियों से मैंने बुना 
जब राख हुयी सब उमीदें
तब मैंने हथियार चुना

2 comments:

  1. why don't you increase the length of your work? Anyways, it is well in line with current political upheavel. Charged up, I must add!

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    1. dear friend, thanx for ur comment. But sometimes long poems become too boring for the targeted audience.

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