Tuesday, November 29, 2011

जब कभी यहाँ अँधेरे हों

We pray fire in every form. Even its the fire in the Sun that guides us. When we worship the God Sun, we worship the fire for its purity.

जो तेरी किरणें पड़ती हैं 
तो धरती अपनी है उजली 
दूर से ही आकाश दिखे 
शाम भी न रहती धुंधली 
शाम की घूंघट न रहती
तुझसे जब यहाँ सवेरे हों 
तुझसे ही पथ उजियारे हों 
जब कभी यहाँ अँधेरे हों 

तुझसे जलती दीपक अपनी 
जब कभी यहाँ अंधियारा हो 
गर्व हो सूरज को तुझसे 
तुझसे रौशन घर सारा है 
सबके चूल्हे जलते तुझसे 
तुझसे मंडप में फेरे हों 
तुझसे ही पथ उजियारे हों 
जब कभी यहाँ अँधेरे हों

तुझको नहीं कोई छू पाए 
तेरा कोई आकार नहीं 
तू तो है अनमोल सदा 
तेरा कोई व्यापार नहीं 
तुझसे धरती पे अन्न उगे
जब कभी ये बादल घेरे हों
तुझसे ही पथ उजियारे हों 
जब कभी यहाँ अँधेरे हों

Thursday, November 10, 2011

दर्द का है कारवाँ

दर्द की है एक जुबां 
ये बहुत कुछ बोलती
अपनी है पहचान क्या
राज़ भी ये खोलती 
सामने तो है खड़ा 
एक खुला सा आसमां
पर यहाँ उड़ने से पहले
दर्द का है कारवाँ 

देख के रौशन जहां 
मैं भी तो था खुश कभी 
ग़ुम हुयी वो रौशनी 
हूँ जिसे ढूढता मैं अभी 
है सामने मेरे बसा 
एक वो रौशन सा जहां 
पर यहाँ जुड़ने से पहले 
दर्द का है कारवाँ 

न यहाँ मैं जानता 
कि क्या मेरी पहचान है 
शाख से जैसे गिरे 
पत्ते की ना कोई शान है 
बन के गुल मैं खिल सकूँ 
है कहाँ वो बागबां
ख़त्म हो जाकर जहां 
जो दर्द का है कारवाँ

Friday, October 28, 2011

बस तेरा ही होना चाहूँ

है आसमा, तुझसे ये इबादत
तारो के संग हो अपनी शोहबत
तू ऐसी ख्वाइश है मेरी
तू बन चूका है मेरी शिद्दत
आकर मैं तेरी पनाहों में  
तारों सा जुड़ना चाहूँ 
हो तुझमें ही मेरा ये बसेरा
बस इतना मैं तुझसे चाहूँ

सावन के आने से तू

बादलों में यूँ छिप जाता है
आफताब तेरे माथे का
इनमे ही कहीं खो जाता है
इन बादलों के पीछे मैं
तुझमे ही दिखना चाहूँ
उस चंदा से तू मुझे मिला
साथी उसका बनना चाहूँ

रात की काली चादर में
तू ग़ुम है कहाँ न जानू मैं
इमारतों के पीछे है छुपा
ऐसा ही अब मानू मैं
तू है कितना दूर खड़ा
ये दूरी कम करना चाहूँ
थाम लू तेरे आँचल को
बस तेरा ही होना चाहूँ

Tuesday, September 13, 2011

ख्वाहिश पहचान बनाने की

चढ़ गयी थकान की मैल थी जो,
कभी उसको हटा ना पाया मैं,
लौट के वापस जो पंहुचा,
जैसे सब हार के आया मैं,
खुद से ही अब ये पूछू,
की जीत के क्या हूँ लाया मैं,
कुछ जवाब मुझको ना मिले,
हर बार ही मात क्यों खाया मैं

 इन प्रश्नों में दबी हुई,
कोशिश है जीत के आने की   
कोशिश है जीत के आने की

दुनिया का दस्तूर है की,
जो जीता है उसको ही सलाम,
जो पा ना सका है मंजिल को
ना पता किसी को उसका नाम
कहाँ खो गया लक्ष्य है मेरा,
ना पता कहाँ पगडण्डी है
चलने से पहले लगे मुझे,
पड़ गयी ये सोच भी ठंडी है

रेत सी कुछ यादों में बसी,
एक सोच थी मंजिल पाने की,
एक सोच थी मंजिल पाने की


 एक मात हुई तो भी क्या हुआ,
फिर से मैं चलूँगा उसी डगर,
रुकना नहीं मुझको और कहीं,
चलना है हर एक पहर,
जब तक ना मुझे मिले मंजिल    
चलता ही रहूँगा शाम सहर 
ख़तम ना होने दूंगा कभी,
जो बहती है वो एक लहर,

भीतर भड़की इस ज्वाला में,
ख्वाहिश पहचान बनाने की 
ख्वाहिश पहचान बनाने की .

Thursday, August 04, 2011

SISKIYAAN Lets wipe their tears

From war on the front to the war in our own territory- this is what I refer the fight against terrorism. Also, this is a message to all who connect terrorism to religion.


Wednesday, August 03, 2011

सरहद पे खड़ा सिपाही है.


सबके मन में खुशहाली है, जब कदम टिके हैं रेतों में,
निगेहबान सरहद पे वो तो, है हरियाली खेतों में.
तिरंगे की वो आन बचाता, आज़ाद हिंद का राही है,
धरती अपनी महफूज़ सदा जब, सरहद पे खड़ा सिपाही है.

बर्फ जमी है धरती पे, फिर भी वो कदम न हिलते हैं,
दुश्मन को जब मार गिराएं, तभी वो चेहरे खिलते हैं.
दोस्त तो पीछे छूट गया, दुश्मन तो अक्सर मिलते हैं,
घर की खुशियों मैं है दरार, वादों से जिनको सिलते हैं.
खून गिरे जो धरती पे, दुश्मन से डरता ना ही वो,
धरती अपनी महफूज़ सदा जब, सरहद पे खड़ा सिपाही है.

घर से ख़त जो मिले उसे, आँखें उसकी नम होती हैं,
निगेहबान फिर भी है वो, आँखें न उसकी सोती हैं.
होकर शहीद जब घर पहुँचे, सबकी आँखें फिर रोती हैं,
सदियाँ भी क्यों न हों उदास, जब वो संताने खोती हैं.
जो अपने लहू से वतन को सींचे, सरफ़रोश की वो गवाही है
धरती अपनी महफूज़ सदा जब, सरहद पे खड़ा सिपाही है

Saturday, May 14, 2011

क्यों पीछे मुड कर देखूं


अपने कदम हैं राहों में

मंज़िल पे हमें पहुचना है।
पथरीली हैं राहें तो क्या
हैं राहों में कांटे तो क्या
आगे है मंज़िल मेरी
आगे चलने की मैं सोचूं
क्यों पीछे मुड कर देखूं 

कुछ पीछे मैं छोड़ चला
याद नहीं वो क्या था भला
ठंडी छाओं ने मुह मोड़ा
जब तपती धुप में रहा जला
मंज़िल मेरी है दूर अभी
रुकने की सोचूं और कभी
क्यों थमने की मैं सोचूं
क्यों पीछे मुड कर देखूं

साथ में मेरे हैं सपने
और थोड़ी उम्मीदें हैं
जगा रहूँ मैं रातों में
आँखों में नीदें हैं। 
जब मंज़िल मिल जायेगी
नींद तभी तो आएगी
मैं मंज़िल की ओर चलूँ
क्यों पीछे मुड कर देखूं

Saturday, February 19, 2011

उनकी खुशियों पे मरता हूँ


उनके ही हाथों में मैंने,
अपनी दो आँखें खोली थी

साथ में उनके कुछ सपने थे,
और ममता कि झोली थी
उनसे ही थी मेरी दिवाली,
और उनसे ही होली थी
भले ही मुझसे कुछ कहा,
पर आँखों में एक बोली थी
वो मेरे भगवान् हैं और मैं,
उन्ही कि पूजा करता हूँ
उन्ही के सपनो से जिंदा मैं,
उनकी खुशियों पे मरता हूँ

दूर जो घर से मैं जाता हूँ,
वो आँखें नहीं सोती हैं
मैं जब मुश्किल में पड़ जाऊं,
फिर वो आँखें रोती हैं
घर वापस फिर कब आएगा,
उनसे यही बातें होती हैं
उनके सपने साकार करूँ,
यही मैं सोचा करता हूँ
उन्ही के सपनो से जिंदा मैं,
उनकी खुशियों पे मरता हूँ
दूर भले में उनसे हूँ,
पर सपनों से नज़दीक हूँ मैं
साथ जो मेरे उनकी दुआएं,
फिर तो यहाँ पे ठीक हूँ मैं
ख़ुशी तो है मंजिल पाने कि,
साथ में दूरी का है ग़म
उनके ख़त जो मिले मुझे तो,
आँखें मेरी होती हैं नम
किस हाल मैं हैं वो पता नहीं,
उनकी परवाह मैं करता हूँ
उन्ही के सपनो से जिंदा मैं,
उनकी खुशियों पे मरता हूँ

Saturday, February 05, 2011

इसी बात से डरता है

मुझको अब किस ओर है जाना
ये कुछ नहीं समझता है
जब कोई मुश्किल आये तो,
दिल ये मेरा उलझता है
रास्ते तो कई हैं लेकिन
मंज़िल कि कुछ पहचान नहीं
उन्ही रास्तों पे चलना है
और कोई अरमान नहीं
ये दिल है नादान मेरा,
हर बार ये गलती करता है
फिर ये गलती न कर बैठे
इसी बात से डरता है।

खुला आसमा देख के इसने
ख्वाहिश राखी है उड़ने की
देख के सबको साथ में उड़ते
उनसे कोशिश है जुड़ने की
आसमा कि थाह नहीं
इस बात से ये अनजाना है
थक के वापस फिर आएगा
दिल को ये समझाना है
फिर से ख्वाहिश न कर बैठे
यही तो ख्वाहिश करता है
फिर ये गलती न कर बैठे
इसी बात से डरता है।

Thursday, January 06, 2011

मेरी उड़ान


ख्वाहिशें कुछ ऐसी हैं,
कि आसमां में मैं उड़ जाऊं,
बादलों को मैं छू लूँ
और इन्द्रधनुष के रंग पाऊं।
आसमान में घर हो मेरा,
परिंदों संग हो वहाँ बसेरा।
उड़ती पतंगों से पूछुंगा
कि तेरी है डोर कहाँ।
आसमान से पूछूँगा मैं,
है तेरा ये छोर कहाँ।
दिन ढलने पर भटक न जाऊं,
इसी बात से डरता हूँ ।
फिर यही सोच कर मैं रह जाऊं,
कि ऐसी ख्वाहिश क्यों करता हूँ।
इस डर से मैं उड़ न पाऊं,
ना ऐसी मजबूरी है।
मंजिल को पाने के लिए,
अपनी तैयारी पूरी है।




मुझसा न महफूज़ कोई

उस हिम कि शीतल बाहों में,
गंगा जमुना कि राहों में,
पर्वत के फैले पहरों में,
गाँव, गली और शहरों में,

मुझसा महफूज़ कोई
वो वीर जवानों कि कुर्बानी,

सौ सदियाँ जिनकी रहें दीवानी,

जब तोड़ा था ज़ंजीरों को,

और चलने दी थी मनमानी,
जगती दिन रात निगाहों में,
इस स्वर्ग सी तेरी पनाहों में,
मुझसा महफूज़ कोई
चंद्रशेखर, गांधी और भगत सिंह
जैसी जन्मी हस्ती जहां पे,
उस धरती को हर बार मैं चूमूं,
हर बार मैं चाहूँ जनम वहाँ पे
मंदिर में और मीनारों में,

सेना कि खड़ी दीवारों में,

मुझसा महफूज़ कोई