Thursday, January 06, 2011

मुझसा न महफूज़ कोई

उस हिम कि शीतल बाहों में,
गंगा जमुना कि राहों में,
पर्वत के फैले पहरों में,
गाँव, गली और शहरों में,

मुझसा महफूज़ कोई
वो वीर जवानों कि कुर्बानी,

सौ सदियाँ जिनकी रहें दीवानी,

जब तोड़ा था ज़ंजीरों को,

और चलने दी थी मनमानी,
जगती दिन रात निगाहों में,
इस स्वर्ग सी तेरी पनाहों में,
मुझसा महफूज़ कोई
चंद्रशेखर, गांधी और भगत सिंह
जैसी जन्मी हस्ती जहां पे,
उस धरती को हर बार मैं चूमूं,
हर बार मैं चाहूँ जनम वहाँ पे
मंदिर में और मीनारों में,

सेना कि खड़ी दीवारों में,

मुझसा महफूज़ कोई

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