जब यूँ लगे कि मुकाम मिला,
काबिलियत का काम मिला,
मेहनत का भी अंजाम मिला,
ख़ुद से बना एक नाम मिला।
देस तभी लौटूँगा।
देस तभी लौटूँगा।
कुछ चेहरे आस लिए बैठे।
मिलने की राह तके बैठे।
दो पल ही भले में सो जाऊँ,
मेरी याद में नहीं वो थके बैठे।
जब ये एहसास मुकम्मल हो,
कि हो गई हासिल मंज़िल,
जब अंधेरी रात की दहलीज़ से,
दिखने लगे सितारे झिलमिल।
देस तभी लौटूँगा।
देस तभी लौटूँगा।
त्योहार भी साथ मनाऊँगा।
आँसू भी पोंछने आऊंगा।
सख़्शियत भी एक अपनी बने,
परचम ऐसा लहराऊँगा।
रूठे हुए हैं कुछ बिछड़े चेहरे,
रोके वो बहुत, हम न ठहरे ।
उनको फिर अब समझाऊँगा।
मजबूरी भी बतलाऊँगा।
जब ख़त्म हो ख़त लिखने की नौबत,
जब लगे कि मिलेगी अपनों की सोहबत,
देस तभी लौटूँगा।
हाँ, देस तभी लौटूँगा।
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