Saturday, October 25, 2025

एक अभियोजक

 न्याय की जब भी हो गुहार,

अदालत में उठी उसकी पुकार।

देकर दलीलें बेशुमार,

अभियुक्त पे करता है प्रहार।

बुझने नहीं दी उम्मीद की लौ 

पीड़ित के कष्ट का मोचक है।

न्याय सुनिश्चित होगा ही,

जब न्याय के दर अभियोजक है।


कुछ ने है खोई आबरू,

कुछ ने खोई संपत्ति है। 

पर बहुतों को पता नहीं हक़ अपना,

बहुतों को नहीं आपत्ति है। 

हो कोई पैमाना जुर्म का,

इसने है बरती सख़्ती। 

अंधेर नहीं है न्याय के दर,

जनता ये भरोसा है रखती। 


कैसे इसने है न्याय दिलाया,

इसका उत्तर अति रोचक है। 

सज़ा मुक़र्रर होगी ही,

जब मुस्तैद अभियोजक है। 




Saturday, October 18, 2025

देस तभी लौटूँगा

जब यूँ लगे कि मुकाम मिला,

काबिलियत का काम मिला,

मेहनत का भी अंजाम मिला,

ख़ुद से बना एक नाम मिला।

देस तभी लौटूँगा।

देस तभी लौटूँगा।


कुछ चेहरे आस लिए बैठे।

मिलने की राह तके बैठे।

दो पल ही भले में सो जाऊँ,

मेरी याद में नहीं वो थके बैठे।

जब ये एहसास मुकम्मल हो,

कि हो गई हासिल मंज़िल,

जब अंधेरी रात की दहलीज़ से,

दिखने लगे सितारे झिलमिल।

देस तभी लौटूँगा।

देस तभी लौटूँगा।


त्योहार भी साथ मनाऊँगा।

आँसू भी पोंछने आऊंगा।

सख़्शियत भी एक अपनी बने,

परचम ऐसा लहराऊँगा।

रूठे हुए हैं कुछ बिछड़े चेहरे,

रोके वो बहुत, हम न ठहरे ।

उनको फिर अब समझाऊँगा। 

मजबूरी भी बतलाऊँगा।


जब ख़त्म हो ख़त लिखने की नौबत,

जब लगे कि मिलेगी अपनों की सोहबत,

देस तभी लौटूँगा।

हाँ, देस तभी लौटूँगा।