Friday, March 23, 2018

नयी डगर

उम्र गुज़रती रहती है 
फ़िर वक़्त फ़िसलता रहता है। 
कितना अब और भी लड़ना है 
मन ये सवाल फ़िर करता है। 

कुछ शिकस्त हम पाए हैं। 
हाँ, चोट भी अक्सर खाए हैं। 
नाकामियों से रचा हुआ,
इतिहास भी हम दोहराए हैं। 


पर क्या हम सचमुच हार चुके ?
क्या कभी नहीं होगी सहर ?
क्यों लगे किअब अँधेरा है ?
क्या नहीं दिखेगी नयी पहर ?

इतिहास तो हम दोहराते हैं। 
फ़िर भूल ये कैसे जाते हैं ?
हर किसी के बीते पलों में भी,
कुछ यादग़ार सौगातें हैं। 

क्यों न पलटें उन पन्नों को,
जिनमें वो यादें रहती हैं,
है ज़िन्दगी बेरंग नहीं,
जो ये बातें भी कहती हैं। 


इतिहास भी उनको पूजता है,
जिसने है खोया सब कुछ।
पर हार न जिसने मानी है,
 है योद्धा वो ही सचमुछ।

अपनी भी दौलत हिम्मत है।
है अपने साथ जो ये अग़र,
हर बादल फ़िर छट जाएगा,
फ़िर दिखेगी हमको नयी डगर। 

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