Tuesday, April 26, 2016

हारेगा नहीं तू इस युग में

कुछ सिक्कों की खनक में जब
कुछ सफ़ेदपोश बईमान हुए,
अपनी जेबें भरने के लिए
किस हद तक वे ऐसे नादान हुए,
जब नए सुबह की उम्मीदों के
ओझल सारे अरमान हुए,
है इंसानियत का चेहरा क्या,
इस बात सब अंजान हुए,

एक तू ही था जिसे थी फ़िकर
आने वाली सदियों के लिए।

क्यों डरता है कि अकेला ही
क्या अपनी मंज़िल पाएगा !
है तूने जो आग़ाज़ किया,
तूफानों से लड़ जाएगा।
तेरे ही बदौलत है बची
हम सब में कुछ उम्मीदें हैं।
हैं सब की सदाएं संग तेरे
हर किले को फतह कर जाएगा।

लेकर फिर सुबह का उजियारा
अध्याय रचेगा कलियुग में।
टूटेगा नहीं तू इस युग में।
हारेगा नहीं तू इस युग में।


No comments:

Post a Comment