Monday, January 06, 2014

फ़िर से हिन्दुस्तान उठा

देखा सपना सदियों से कि, 
अंतरिक्ष में जाना है। 
क्या क्या है छुपा इस अम्बर में, 
इसका जवाब भी पाना है। 
सदियों से कैद था कमरे में, 
फ़िर भी उम्मीदें न खोयी। 
तयं कर लिया कि ये ब्रह्माण्ड, 
ही उसका नया ठिकाना है। 

भुला के फ़िर बीते कल को 
और तोड़ के अपनी हर बेड़ी, 
फ़िर से हिन्दुस्तान उठा। 

थे राह में कुछ कांटे बिछे 
जिनसे जूझे आगे बढ़ा। 
और एक दिन आया फ़िर ऐसा 
कि आसमां पे ये चढ़ा। 
रखा इसने ऐसा दर्पण,
जिसमें सारी धरती दिखे।
थी चाँद को छूने की इच्छा,
अब उस मक़सद पे ये अड़ा। 

इक्कीसवीं सदी में आ के 
अपना परचम लहराने को,
फ़िर से हिन्दुस्तान उठा।

देखा चाँद पे इसने जल,  
जब चंद्रयान की थी सवारी।
नयी जगह जीवन के लिए,
मंगल पे जाने की तैयारी। 
ख़ुद पे निर्भर रहने के लिए 
इसने अपनी तकनीक चुनी।

पर कुछ असफ़ल प्रयासों से 
इसने खेली अपनी पारी। 

मायूस हुआ 
पर न टूटा। 
अपने मकसद पे फिर जुटा। 
अब कि अपने हौसले के बूते 
ख़ुद को इसने साबित किया। 
इस हौसले के सहारे ,
नभ में अपनी कश्ती उतारे,
फ़िर से हिन्दुस्तान उठा।
अपना हिंदुस्तान उठा।  

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