Thursday, September 06, 2012

उनसे ही ये दुनिया चलने लगी

कुछ चीखों और चिल्लाहटों ने
दी थी दस्तक बरसों से
पर हम अपनी दुनिया को समेटे
बेपरवाह से रहते थे
न हमें थी फ़ुरसत उस कल में
कि हम उनकी फ़रियाद सुनें
उनका हमसे न वास्ता
ये सोच बेफ़िकर रहते थे


लांघ के सारी दहलीज़ें 
इस दुनिया में वो रहने लगी 
इस दुनिया में वो रहने लगी 

फिर हमने देखे वो चेहरे
थे जिससे अंजान कई
पर कुछ लोगों के घर में
सब उन्हें हमसफ़र कहते थे
इन चेहरों के पीछे भी
कुछ और मुखौटे छिपते हैं
जिसका उनको एहसास नहीं
जिससे वो बेखबर रहते हैं
दुनिया के थे मेहमान मग़र 
उनसे ही ये दुनिया चलने लगी  
उनसे ही ये दुनिया चलने लगी

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