Friday, June 29, 2012

हम पूछ रहे हैं अब खुद से

सूरज की गर्मी से जली 
फिर आज ये अपनी धरती है 
सूखी अब फसलें हैं पड़ी 
भूखी अब जनता मरती है
ऊंची खड़ी इमारतों ने 
हवा का रुख़ फिर रोका है 
हम पूछ रहे हैं अब खुद से 
कि कहाँ हवा का झोंका है 

बारिश की बूंदों से फिर 
धरती की तपिश है थमी रही 
पर बादलों की आँख मिचौली 
से आँखों में नमी रही 
हो रही है बंजर ये धरती 
हरियाली एक धोखा है  
हम पूछ रहे हैं अब खुद से 
कि कहाँ हवा का झोंका है

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