सूरज की गर्मी से जली
फिर आज ये अपनी धरती है
सूखी अब फसलें हैं पड़ी
भूखी अब जनता मरती है
ऊंची खड़ी इमारतों ने
हवा का रुख़ फिर रोका है
हम पूछ रहे हैं अब खुद से
कि कहाँ हवा का झोंका है
बारिश की बूंदों से फिर
धरती की तपिश है थमी रही
पर बादलों की आँख मिचौली
से आँखों में नमी रही
हो रही है बंजर ये धरती
हरियाली एक धोखा है
हम पूछ रहे हैं अब खुद से
कि कहाँ हवा का झोंका है
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