Wednesday, February 22, 2012

कब दूर ये बेनूरी होगी

न दिखता है रस्ता कोई 
धुंधला सा यहाँ सवेरा है 
है दिशा कहाँ मुझको न पता 
ये कहाँ कारवाँ मेरा है 

एक रौशनी की है तलाश 
कब ये तलाश पूरी होगी 
कब बीतेगी ये रात अँधेरी 
कब दूर ये बेनूरी होगी 

हो घना अँधेरा कितना भी 
छटता है सुबह के होने पे 
रौशनी का एक ज़र्रा भी 
आता है रात के सोने पे 

मेरी मंज़िल भी दूर है मुझसे
कब ख़फ़ा भी ये दूरी होगी 
कब बीतेगी ये रात अँधेरी 
कब दूर ये बेनूरी होगी






1 comment:

  1. जो सफ़र इख़्तियार करते हैं,
    वही मंजिलों को पार करते हैं,
    बस एक बार चलने का हौसला तो रखिये,
    ऐसे मुसाफिरों का तो रस्ते भी इंतजार करते हैं.......

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