Thursday, May 28, 2015

जल का मरहम

भोर से निकला हुआ मुसाफ़िर,
बुझ कर जैसे बेहाल हुआ।
इस मुरझाये से चेहरे पे,
खुशियों का जो आकाल हुआ।
था हरियाली का साया जो,
वो न तो अबकी साल हुआ।
फसलें जो अब चौपट हुयी,
फिर किसान कंगाल हुआ।

अम्बर को निहारते रहते कि
तपता सूरज थक जायेगा।
नीला सा दिखता साया ये,
बादलों से फिर ढक जाएगा।

धरती हमसे अब ख़फ़ा हुयी,
जैसे हमसे कोई ख़ता हुयी।
आँसुओं से खेतों को सींचा,
नदियां जो अब लापता हुयी।
बारिश को तरसें हम बेबस,
पर बादलों की है आँख-मिचौली।
देकर खुशियों का ये झांसा,
लौटें लेकर अपनी टोली।

जो इंतेज़ार है सावन का,
जाने किस हद तक जाएगा!
धरती के आँचल में बादल,
जल का मरहम रख जाएगा।


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