Wednesday, September 14, 2016

बस इतना हासिल कर लूं

यह कविता एक ऐसे व्यक्ति की मनोदशा को व्यक्त करती है, जो भ्रष्ट आचरण कारण कारावास की सजा काट रहा  है और जिसे अपने भ्रष्ट आचरण के कारण हुए हादसे का पश्चाताप है।   

एक नयी सुबह की दस्तक थी,
ये क़ायनात नतमस्तक थी,
एक नया पड़ाव था जीवन का,
खुशियों की कहानी तब तक थी।

फिलहाल कहानी ऐसी है,
जैसे बिन पंख परिन्दा हूँ। 
अँधेरी चार दीवारी में,
बीते लम्हों संग ज़िंदा हूँ। 

मूंदी हुयी आँखें कहती हैं
मैं आसमान में फ़िर उड़ लूँ।
एक नयी ऊंचाई फिर चूमूँ।
एक नयी ऊंचाई फिर चूमूँ।

ख्वाबों के लाखों रंगों में,
फिर ख़ुद को ज़ाहिर कर लूँ। 
बस इतना हासिल कर लूं। 
बस इतना हासिल कर लूं। 


थी ज़िद एक आगे बढ़ने की,
एक नए शिखर पे चढ़ने की। 
मेरा ग़ुरूर हमराह हुआ। 
जाने कब मैं ग़ुमराह हुआ !

कितने ही घर बर्बाद हुए 
मेरी इस ज़िद की हुक़ूमत से। 
थी चादर मेरी छोटी पर 
माँगा अधिक ज़रुरत से। 

दिखता बस एक अँधेरा है। 
लगता नाराज़ सवेरा है। 
सन्नाटों के साये में 
रोता हर ख़्वाब ये मेरा है। 

अब हिम्मत न बची है कि,
टूटे सपनों को जोड़ सकूँ। 
अपने बेबस इन हाथों से 
जीवन की कश्ती मोड़ सकूँ। 

भूल के अपना बीता कल,
फिर से एक आग़ाज़ करू।
खुद को इस काबिल कर लूँ। 
बस इतना हासिल कर लूं।
बस इतना हासिल कर लूं। 

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