If you never visited a temple or a holy place or mosque, because you never felt like visiting such places and because worship means something doing something pious for you, this poem is dedicated to you.
न मंदिर मैं गया कभी,
न ही सजदे में झुका कभी।
औरों का देखा देखी भी,
मन की करने में न रुका कभी।
क्योंकि न मैला है मन मेरा
न कभी बुरा ये करता है।
देखे जो किसी का दर्द ये,
उसका हर ज़ख्म ये भरता है।
थे पाखण्डी तो बहुतेरे,
करते थे ढोंग मानवता का।
करते थे इबादत मतलब से
ठगते थे भरोसा जनता का।
देते मूरत को वो आहार,
औरों पे थी उनकी फ़टकार।
न था उनके मन में कभी
कि वो करें सबका उद्धार।
न पता था मुझे कि क्या रखूं
मानवता का पैमाना मैं।
है कहाँ धूल में लिपटी ये,
ढूंढूं सारा तहख़ाना मैं।
क्योंकि थी ज़रुरत एक ऐसी
जो सबने महसूस किया।
थी तोड़नी वो मनमानी
जिसने सदियों से हुकुम किया।
No comments:
Post a Comment