क्यों मैं सोचूं कि अब मेरी
पहचान ख़तम होती है दिखी
क्यों मैं सोचूं कि दुनिया ने
है मेरी भी तकदीर लिखी
इस अन्धकार सी नगरी में
क्यों ये कदम न टिकते हैं
जिनसे दिखी थी राहें मुझे
क्यों वो चिराग न दीखते हैं
न पता कि अब इस राह को भी
फिर कौन सी करवट लेनी है
न पता कि उगते सूरज को
फिर कब दस्तक देनी है
ये किस जहां में पहुंचा हूँ
ये सोच के हूँ हैरान सदा
देख के नाकामी सूरत
किस सोच में है फिर सारा जहां
किस से पूछूं कि अब मुझको
आगे किस और को जाना है
जिसने मुझे फिर यहाँ रोका है
नाकामी का ही वो बहाना है
जो मिले अब रौशन कारवाँ
एक नयी सुबह को चाहूँगा
आगे बढ़ने की जो सोची तो
अपनी हर मंज़िल पाऊंगा
जिस और है जाना तय किया
उस ओर ही अब मैं जाऊँगा
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