Sunday, September 22, 2013

ठहराव के आगे

क्यों मैं सोचूं कि अब मेरी 
पहचान ख़तम होती है दिखी 
क्यों मैं सोचूं कि दुनिया ने 
है मेरी भी तकदीर लिखी 
इस अन्धकार सी  नगरी में 
क्यों ये कदम न टिकते हैं 
जिनसे दिखी थी राहें मुझे 
क्यों वो चिराग न दीखते हैं 

न पता कि अब इस राह  को भी
फिर कौन सी करवट लेनी है 
न पता कि उगते सूरज को 
फिर कब दस्तक देनी है 

ये किस जहां में पहुंचा हूँ 
ये सोच के हूँ हैरान सदा 
देख के नाकामी सूरत 
किस सोच में है फिर सारा जहां 

किस से पूछूं कि अब मुझको 
आगे किस और को जाना है 
जिसने मुझे फिर यहाँ रोका है 
नाकामी का ही वो बहाना है

जो मिले अब रौशन कारवाँ 
एक नयी सुबह को चाहूँगा 
आगे बढ़ने की जो सोची तो
अपनी हर मंज़िल पाऊंगा 
जिस और है जाना तय किया 
उस ओर ही अब मैं जाऊँगा 

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