पश्चिम का ही परचम था।
उम्मीद का दीपक मद्धम था।
जो गीत रचे नए कल के
आज़ादी का ही सरगम था।
ख़ुदगर्ज़ नहीं वो रहा कभी,
जब आहुति देनी पड़ी।
अपने लहू से सींची धरती,
जिसपे है आज की नींव खड़ी।
थी जिनके रग में कुर्बानी,
थी जिन्होंने आज़ादी की ठानी,
वो वीर सपूत थे भारत के
वो वीर सपूत थे भारत के।
बातों का भी दौर चला।
सत्याग्रह कुछ दिन और चला।
उनकी आंखों में जाने कब से,
एक नयी सुबह का ख़्वाब पला।
हांथ सने बारूदों से,
सीने में भी चिंगारी थी।
बेड़ियों को तोड़ने की
उनकी कवायद जारी थी।
बात विचार जो विफल हुए,
संग्राम की अब तैयारी थी।
जो रहे सदा ही निगेहबान,
थामी रण की जिसने कमान,
वो वीर सपूत थे भारत के।
वो वीर सपूत थे भारत के।
जो रास न आया प्रेम भाव,
अब उन्होंने हुंकार भरी।
जा टकराए उस हुकूमत से,
जो रही सदा अहंकार भरी।
लाठी चली, गोली चली।
फांसी का डर भी बिसर गया।
कांप उठा अब दुश्मन भी,
सुनकर गरज ललकार भरी।
जिनसे है आबाद वतन,
जिनको है सबका नमन,
थे वीर सपूत वो भारत के।
हां वीर सपूत वो भारत के।