अपने कदम हैं राहों में
मंज़िल पे हमें पहुचना है।
पथरीली हैं राहें तो क्या
हैं राहों में कांटे तो क्या
आगे है मंज़िल मेरी
आगे चलने की मैं सोचूं
क्यों पीछे मुड कर देखूं
कुछ पीछे मैं छोड़ चला
याद नहीं वो क्या था भला
ठंडी छाओं ने मुह मोड़ा
जब तपती धुप में रहा जला
मंज़िल मेरी है दूर अभी
रुकने की सोचूं और कभी।
क्यों थमने की मैं सोचूं
क्यों पीछे मुड कर देखूं
साथ में मेरे हैं सपने
और थोड़ी उम्मीदें हैं
जगा रहूँ मैं रातों में
न आँखों में नीदें हैं।
जब मंज़िल मिल जायेगी
नींद तभी तो आएगी ।
मैं मंज़िल की ओर चलूँ
क्यों पीछे मुड कर देखूं ।