सब कुछ ही खो गया है जिसमें,
पहचान सो गयी है जिसमें,
अस्तित्व नहीं जहाँ रंगों का,
जहाँ छोर दिखे न अंगों का,
हमदर्द जो गुनहगारों का,
कोख़ है काले कारोबारों का,
निगली जिसने परछाईं है,
बुनता है जो ख़्वाब हज़ारों का,
माशूख है चोर-लुटेरे की।
है यही दास्तां अंधेरे की।
जिसमें हैं घुले से रंग कई,
सदियां भी जिसमें डूब गयी।
रौशनी से जिसकी रंजिश है।
इससे ही उबरना ख़्वाहिश है।
इसकी गहराई के भीतर,
कुछ राज़ भी छिपकर रहते हैं,
जिनका सच कभी न खुल सका,
ऐसा कुछ लोग भी कहते हैं।
एक नयी शुरुआत सवेरे की।
है यही दास्तां अंधेरे की।
पहचान सो गयी है जिसमें,
अस्तित्व नहीं जहाँ रंगों का,
जहाँ छोर दिखे न अंगों का,
हमदर्द जो गुनहगारों का,
कोख़ है काले कारोबारों का,
निगली जिसने परछाईं है,
बुनता है जो ख़्वाब हज़ारों का,
माशूख है चोर-लुटेरे की।
है यही दास्तां अंधेरे की।
जिसमें हैं घुले से रंग कई,
सदियां भी जिसमें डूब गयी।
रौशनी से जिसकी रंजिश है।
इससे ही उबरना ख़्वाहिश है।
इसकी गहराई के भीतर,
कुछ राज़ भी छिपकर रहते हैं,
जिनका सच कभी न खुल सका,
ऐसा कुछ लोग भी कहते हैं।
एक नयी शुरुआत सवेरे की।
है यही दास्तां अंधेरे की।
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