Saturday, May 11, 2024

शायद अगली तारीख़ पर

कुछ तीस बरस पहले यूँ हुआ,

ग़बन का झूठा इल्ज़ाम लगा। 

खेल था कुछ सफ़ेदपोशों का, 

उसका बेमतलब नाम लगा। 


खो बैठा वो अपना सब-कुछ,

सबकी नज़रों से उतर गया।

न हटेगा  झूठा दाग कभी,

ऐसा उसको अंजाम लगा। 


जो कोर्ट-कचहरी शुरू हुयी,

थामी उसने उम्मीद नयी। 

दस बरस तो यूँ ही गुज़र गए,

ज़िरह तो बस चलती ही गयी। 


हर सुनवाई पे हाज़िर होकर,

करता वो पेश सफ़ाई है। 

शायद अगली तारीख़ पर,

फ़ैसले में लिखी रिहाई है। 

पर बीत गए कुछ और बरस,

वो आज भी एक मुदालय है। 

फ़िर भी जिस से उम्मीद बची,

वो केवल एक न्यायालय है। 


इसलिए उसे परवाह नहीं,

हो कितनी तोहमत की बेड़ियाँ। 

एक फ़ैसले की ज़द्दोजहद में,

उसने है रगड़ी एड़ियां। 


आज भी एक सुनवाई है। 

ज़हन में छिड़ गयी लड़ाई है। 

भीतर से एक आवाज़ उठी,

कि घड़ी अब फ़ैसले कि आयी है। 


ऐसा टूटा कि जुड़ न सका,

जब से हैं शुरू ये सिलसिले। 

शायद इस तारीख़ पर,

अपनी शख़्सियत बेदाग़ मिले। 


Wednesday, October 25, 2023

मन मेरा यूं करता है


मन मेरा यूं करता है,

मैं हवा से अब तो बात करूँ

तेरे संग दिन को रात करूँ

पथरीली मुश्किल राहों को 

तेरे कदमों से आघात करूँ।


मन मेरा यूं करता है

अस्सी- नब्बे तो कल की बात,

सौ से आगे रफ़्तार करूँ। 

उगता सूरज तुझको देखे,

उसपे मैं ये आभार करूँ।


मन मेरा यूं कहता है

गोंद में तेरी बैठे हुए,

तेरी धड़कन का आभास करूँ।

हाँ, है ताकत मेरी मुट्ठी में,

इस तथ्य का मैं एहसास करूँ।


मन मेरा यूं कहता है

कोई आगे निकल गया तो क्या,

पहले हम मंज़िल पा लेंगे।

बस कुछ कदमों की दूरी पे,

गीत विजय के गा लेंगे।

Tuesday, January 03, 2023

वो वीर सपूत थे भारत के

पश्चिम का ही परचम था।

उम्मीद का दीपक मद्धम था।

जो गीत रचे नए कल के

आज़ादी का ही सरगम था।


ख़ुदगर्ज़ नहीं वो रहा कभी,

जब आहुति देनी पड़ी।

अपने लहू से सींची धरती,

जिसपे है आज की नींव खड़ी।


थी जिनके रग में कुर्बानी,

थी जिन्होंने आज़ादी की ठानी,

वो वीर सपूत थे भारत के

वो वीर सपूत थे भारत के।


बातों का भी दौर चला।

सत्याग्रह कुछ दिन और चला।

उनकी आंखों में जाने कब से,

एक नयी सुबह का ख़्वाब पला।


हांथ सने बारूदों से,

सीने में भी चिंगारी थी।

बेड़ियों को तोड़ने की

उनकी कवायद जारी थी।

बात विचार जो विफल हुए,

संग्राम की अब तैयारी थी।


जो रहे सदा ही निगेहबान,

थामी रण की जिसने कमान,

वो वीर सपूत थे भारत के।

वो वीर सपूत थे भारत के।



जो रास न आया प्रेम भाव,

अब उन्होंने हुंकार भरी।

जा टकराए उस हुकूमत से,

जो रही सदा अहंकार भरी।

लाठी चली, गोली चली।

फांसी का डर भी बिसर गया।

कांप उठा अब दुश्मन भी,

सुनकर गरज ललकार भरी।


जिनसे है आबाद वतन,

जिनको है सबका नमन,

थे वीर सपूत वो भारत के।

हां वीर सपूत वो भारत के।