Saturday, May 11, 2024

शायद अगली तारीख़ पर

कुछ तीस बरस पहले यूँ हुआ,

ग़बन का झूठा इल्ज़ाम लगा। 

खेल था कुछ सफ़ेदपोशों का, 

उसका बेमतलब नाम लगा। 


खो बैठा वो अपना सब-कुछ,

सबकी नज़रों से उतर गया।

न हटेगा  झूठा दाग कभी,

ऐसा उसको अंजाम लगा। 


जो कोर्ट-कचहरी शुरू हुयी,

थामी उसने उम्मीद नयी। 

दस बरस तो यूँ ही गुज़र गए,

ज़िरह तो बस चलती ही गयी। 


हर सुनवाई पे हाज़िर होकर,

करता वो पेश सफ़ाई है। 

शायद अगली तारीख़ पर,

फ़ैसले में लिखी रिहाई है। 

पर बीत गए कुछ और बरस,

वो आज भी एक मुदालय है। 

फ़िर भी जिस से उम्मीद बची,

वो केवल एक न्यायालय है। 


इसलिए उसे परवाह नहीं,

हो कितनी तोहमत की बेड़ियाँ। 

एक फ़ैसले की ज़द्दोजहद में,

उसने है रगड़ी एड़ियां। 


आज भी एक सुनवाई है। 

ज़हन में छिड़ गयी लड़ाई है। 

भीतर से एक आवाज़ उठी,

कि घड़ी अब फ़ैसले कि आयी है। 


ऐसा टूटा कि जुड़ न सका,

जब से हैं शुरू ये सिलसिले। 

शायद इस तारीख़ पर,

अपनी शख़्सियत बेदाग़ मिले। 


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