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Thursday, November 10, 2011

दर्द का है कारवाँ

दर्द की है एक जुबां 
ये बहुत कुछ बोलती
अपनी है पहचान क्या
राज़ भी ये खोलती 
सामने तो है खड़ा 
एक खुला सा आसमां
पर यहाँ उड़ने से पहले
दर्द का है कारवाँ 

देख के रौशन जहां 
मैं भी तो था खुश कभी 
ग़ुम हुयी वो रौशनी 
हूँ जिसे ढूढता मैं अभी 
है सामने मेरे बसा 
एक वो रौशन सा जहां 
पर यहाँ जुड़ने से पहले 
दर्द का है कारवाँ 

न यहाँ मैं जानता 
कि क्या मेरी पहचान है 
शाख से जैसे गिरे 
पत्ते की ना कोई शान है 
बन के गुल मैं खिल सकूँ 
है कहाँ वो बागबां
ख़त्म हो जाकर जहां 
जो दर्द का है कारवाँ

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