Pages

Tuesday, September 13, 2011

ख्वाहिश पहचान बनाने की

चढ़ गयी थकान की मैल थी जो,
कभी उसको हटा ना पाया मैं,
लौट के वापस जो पंहुचा,
जैसे सब हार के आया मैं,
खुद से ही अब ये पूछू,
की जीत के क्या हूँ लाया मैं,
कुछ जवाब मुझको ना मिले,
हर बार ही मात क्यों खाया मैं

 इन प्रश्नों में दबी हुई,
कोशिश है जीत के आने की   
कोशिश है जीत के आने की

दुनिया का दस्तूर है की,
जो जीता है उसको ही सलाम,
जो पा ना सका है मंजिल को
ना पता किसी को उसका नाम
कहाँ खो गया लक्ष्य है मेरा,
ना पता कहाँ पगडण्डी है
चलने से पहले लगे मुझे,
पड़ गयी ये सोच भी ठंडी है

रेत सी कुछ यादों में बसी,
एक सोच थी मंजिल पाने की,
एक सोच थी मंजिल पाने की


 एक मात हुई तो भी क्या हुआ,
फिर से मैं चलूँगा उसी डगर,
रुकना नहीं मुझको और कहीं,
चलना है हर एक पहर,
जब तक ना मुझे मिले मंजिल    
चलता ही रहूँगा शाम सहर 
ख़तम ना होने दूंगा कभी,
जो बहती है वो एक लहर,

भीतर भड़की इस ज्वाला में,
ख्वाहिश पहचान बनाने की 
ख्वाहिश पहचान बनाने की .

2 comments:

  1. Bahut sundar...

    Loved these parts:

    इन प्रश्नों में दबी हुई,
    कोशिश है जीत के आने की
    कोशिश है जीत के आने की
    And
    रेत सी कुछ यादों में बसी,
    एक सोच थी मंजिल पाने की,
    एक सोच थी मंजिल पाने की.

    ReplyDelete